Wednesday, January 6, 2010

लेटेस्ट नारा है-डोंट बी संतुष्ट

जी हां, इक्कीसवी सदी के भारत का सबसे लेटेस्ट नारा है-डोंट बी संतुष्ट। खबरदार जो संतुष्ट हुए। हम लोगों ने तो बचपन में यही पढ़ा है कि संतोष ही जीवन का मूल है। पहले यह संदेश दिया जाता था- जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान। यानी संतोष के आगे सारे धन धूल की तरह हैं लेकिन अब तो यह बात ही धूल में मिला दी गई है। अब तो कहा जा रहा है कि संतुष्ट मत हो। बाकायदा एक विज्ञापन में रोज यह कहा जा रहा है। उसमें संतोष करने वालों को पिछड़ा या बेवकूफ साबित किया जाता है। पहले हम एक लोटा पानी पीकर संतोष करते रहे, एक धोती या पाजामे को सालों रगड़ते रहे या पैबंद लगाकर काम चलाते रहे मगर अब यह सब आउट ऑफ डेट हो गया है। अब तो संतुष्ट होना पाप है। सत्तर के दशक में यह बहस चला करती थी कि कि संतोष और प्रगति एक दूसरे के विरोधी हैं, लगता है आज प्रगति ने संतोष को पराजित कर दिया है। शायद इसीलिए कहा जा रहा कि संतुष्ट मत होइए। अगर आपके पास किराए का सु़विधाजनक मकान है तो उससे संतोष मत करिए। खुद का मकान है तो भी संतोष मत करिए। एक मकान पहाड़ पर, एक समुद्र के किनारे, एक तीर्थ स्थान पर हो तो भी संतोष मत कीजिए। मकान ही मकान हो तो भी संतोष से दूर रहिए। इसी तर्ज पर यह भी कहा जा सकता है कि आपके पास एक अच्छी सी कार होने से कुछ नहीं बनता। घर में जितने मेंबर नौकर सहित हों सबके पास एक-एक कार हो तो भी संतोष से कोई नाता मत रखिए भले ही कारें बाहर सड़क पर पार्क करनी पडे़। गए वो दिन जब ईद, दीपावली या क्रिसमस पर घर भर के कपडे़ बनते थे। अब तो आपके बगल में शॉपिंग मॉल हाजिर है दीवाली सा जगमगाता। हर हफ्ते जाकर कपड़े खरीदें। जिस हफ्ते खरीदने को कुछ न हो तो एक दो दर्जन बनियान ही खरीद लीजिए, तौलिया ही ले आइए। मगर ध्यान रहे कुछ भी खरीद कर संतुष्ट मत होइए। पहले लोग मिठाइयां त्योहारों पर खाते थे और साल भर संतोष कर लेते थे। अब रोज मिठाई और मलाई खा-खाकर मोटे होते रहिए पर प्लीज संतोष न करिए, मोटापे का इलाज भी कराते रहिए, डॉक्टर भी बदलते रहिए पर कृपया संतुष्ट मत होइए। घर में एक टीवी व एसी हो तो हर कमरे में टीवी और एसी लगवा लें यहां तक कि बाथरूम में भी ध्यान रखें। संतोष से दूर-दूर तक कोई रिश्ता न रखिए। पत्नी से संतुष्ट होने का युग भी अब नहीं रहा। इसलिए ज्यादा से ज्यादा महिला मित्र बनाने का चलन शुरू हो गया है। लोग मोहल्ले के लिए अलग दफ्तर के लिए अलग गर्लफ्रेंड रखते हैं। कुछ लोग तो अलग-अलग शहरों में अलग-अलग गर्लफ्रेंड रखने लगे हैं। इस मामले में भी संतोष करना गलत है। यह बात गांठ बांध लीजिए कि संतोष जहरीले कीटाणु हैं, ये एक बार आपके शरीर में प्रवेश कर गए तो आपकी सारी प्रगति रोक देंगे। लेकिन संतुष्ट मत होइए के नारे का एक नकारात्मक अर्थ भी है और वो है कि असंतुष्ट होइए या असंतुष्ट होना सीखिए। पर ये पहले से ही सब जगह भरे पडे़ हैं। राजनीति में असंतुष्ट कहलाना एक कला है। साहित्य में असंतुष्ट वे हैं जिनकी रचनाएं कहीं छप नहीं पातीं। उसी तरह कहीं खिलाड़ी असंतोष महसूस कर रहे हैं तो कहीं कलाकार। अगर संतुष्ट और असंतुष्टों की गिनती की जाए तो असंतुष्टों का पलड़ा भारी बैठेगा। इसलिए कृपया संतुष्ट मत होइए का एक संदेश यह भी है कि कृपया असंतुष्ट होना सीख जाएं। एक बार एक नेता से किसी ने पूछा कि आपको लाभ का पद प्राप्त हो गया, क्या अब आप संतुष्ट हैं? इस पर नेता ने कहा कि हां, मगर असंतुष्टों से मेरी अब भी सहमति है

मैं आत्मकथा नहीं लिख रहा हूं

कई सालों तक मानसिक उहापोह और कई महीनों के बौद्धिक व्यायाम के बाद अंतत: मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि मैं आत्मकथा नहीं लिखूंगा, अत: मैं आत्मकथा नहीं लिख रहा हूं। जैसे लिखने के अनेक कारण गिनाए जा सकते हैं, वैसे ही मेरे न लिखने के भी अनेक कारण हैं। पहला कारण, आत्मकथा महान लोग लिखते हैं। मैं न कद में, न वजन में और न स्तर में वैसा हूं सो आत्मकथा लिखने की क्या तुक है? मेरा चरित्र भी ऐसा वैसा नहीं रहा। होता तो लोगों के लिए प्रेरणा स्त्रोत के नाम पर फटाफट एक आत्मकथा लिख मारता। आखिर लोग माफियाओं, तस्करों, भाइयों की आत्मकथा से भी कुछ न कुछ प्रेरणा लेते ही हैं। ऐसा भी होता है कि जिनकी आत्मा नहीं होती वे भी आत्मकथा लिख लेते हैं। पर मेरी तो एक नन्ही-मुन्नी सी आत्मा अभी बची है, इसलिए मैं आत्मकथा नहीं लिख रहा हूं। कुछ लोग आत्मकथा इसलिए भी लिख लेते हैं कि किसी व्यक्ति, वस्तु, स्थान, क्रिया या भाव को लेकर उनके मन में संवेदना और पीड़ा पैदा हो जाती है। उस पीड़ा को अभिव्यक्ति देने के लिए आत्मकथा लिखना जरूरी हो जाता है। इससे पीड़ा का क्या होता है, पता नहीं पर साहित्य जरूर पीड़ित नजर आने लगता है। मैं साहित्य को कतई पीड़ा पहुंचाना नहीं चाहता, इसलिए साहित्य निश्चित रहे, मैं आत्मकथा नहीं लिख रहा हूं। सुना है, अपने पापों की सफाई देने के लिए भी लोग आत्मकथा लिख लेते हैं। न सिर्फ लिख लेते हैं, बल्कि खुद ही छपवा भी लेते हैं और रेवड़ी की तर्ज पर बंटवा कर पढ़वा भी लेते हैं। मैंने तो हमेशा पुण्य कर्म किए हैं। जैसे एक बार अठन्नी तब दान की थी जब दिल्ली में अठन्नी का चलन बंद हो गया था या जैसे एक धनी महिला को 100 रुपये मुसीबत में उधार दिए थे या जैसे मुफ्त का खा-खा कर लोगों पर एहसान किया और अपना पुण्य किया है। पुण्य कर्म का सुयश तो अपने आप ही फैलता है। इसके लिए आत्मकथा लिखने की क्या जरूरत है। सो मैं आत्मकथा नहीं लिख रहा हूं। ऐसा भी पाया जाता है कि सांसारिक उन्नति या आत्मोन्नति हो जाने पर लोग फौरन से पेश्तर आत्मकथा लिखने बैठ जाते हैं। मेरी सांसारिक उन्नति या आत्मोन्नति तो खैर क्या होनी थी, देह ही ठीक से उन्नति नहीं कर पाई। हाइट पौने 5 फीट रह गई, उम्र पचपन की। वजन भी पचास से कुछ कम ही है। ऐसी फटीचर काया की तो काया-कथा भी नहीं लिखी जा सकती। ये भी एक कारण है कि मैं आत्मकथा नहीं लिख रहा हूं। कुछ लोग कुछ बन जाते हैं, जैसे क्रिकेट स्टार, फिल्म स्टार, पॉलिटिक्स के स्टार, तिकड़म के स्टार, दलाली के स्टार। मैं इनमें से कुछ बन नहीं सका। किसी-किसी को ऐसा लगने लगता है कि उसके अनुभव अन्यों के लिए मार्गदर्शक हो सकते हैं। ऐसे लोग आत्मकथा स्वयं न लिख कर किराए पर भी किसी से लिखवा लेते हैं। मेरे अनुभवों से लोग अपनी दुर्गति ही कराएंगे इसलिए मैं अपनी अनुभव कथा अर्थात आत्मकथा नहीं लिख रहा हूं। यह भी देखने में आता है कि व्यक्ति (लेखक) को कभी-कभी लगता है कि उसके सहयोगी या समय या समाज ने उसके साथ न्याय नहीं किया तो वह भी आत्मकथा लिखकर अपनी भड़ास निकाल लेता है। मेरे साथ ऐसा भी कुछ नहीं है। समय और समाज ने मेरे साथ हमेशा इंसाफ ही किया है। कुछ जेल में बैठे ठाले आत्मकथा लिख डालते हैं। उस सुरम्य वातावरण में जाने का मुझे सौभाग्य ही प्राप्त नहीं हुआ, सो आत्मकथा लिखने से वंचित रह गया। कुछ स्वनामधन्य अपनी कमजोरियों के बखान के लिए आत्मकथा का सहारा लेते हैं, और बाद में चाहते हैं कि पाठक पढ़कर उनका गौरव गान करें। मैं कभी कमजोर नहीं पड़ा क्योंकि पहले से ही कमजोर था। अपनी कमजोरियों के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए आत्मकथा का बहाना लेना मुझे ठीक नहीं लगता। ये और ऐसे अनेक कारण हैं कि अकारण मैं अपनी आत्मकथा किसी को बताना नहीं चाहता, सो मैं आत्मकथा नहीं लिख रहा हूं